पेट की आग बुझाने का जुगाड़ हुआ खत्म

Apr 18, 2021 - 00:43
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पेट की आग बुझाने का जुगाड़ हुआ खत्म

भारतीय अर्थव्यवस्था किसान मजदूर दोनों पर टिकी हुई हैं जो कुल अर्थ व्यवस्था के पिच्यासी प्रतिशत हिस्सा को प्रभावित करती है,  देश की एक अरब पेतिस करोड़ जनसंख्या का 85% हिस्सा मजदूर  किसान दोनों का है, इनमें भी 60% दिहाड़ी मजदूर व बंधुआ मजदूर है। इतनी अधिक जनसंख्या होने के बाद भी ये आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में इनकी स्थिति बड़ी दयनीय रही है, जबकि 15% लोगों का जीवन (व्यापारी, उद्योगपति, नौकरी पेशा, राजनेता) स्तर इन्हीं मजदूरों के श्रम के बदौलत श्रेष्ठ बना हुआ है।
भारतवर्ष में समाज चार वर्गों में बाटा गया वह आज भी मजदूर, व्यापारी, नौकर, प्रशासक जैसे वर्गों में  बटा दिखाई देता है, नौकर महज 2 से 3 प्रतिशत, व्यापारी 10%, उधोगपति .०1 प्रतिशत तथा शेष जनसंख्या किसान व मजदूर जो आज भी विद्यमान है, जिनकी आजीविका का मुख्य साधन मजदूरी रही, मजदूर चाहे जैसा हो,चेजा मजदूर, सफाई मजदूर, फैक्ट्री के कुशल श्रमिक मजदूर, प्राइवेट स्कूलों के शिक्षक मजदूर, खदानों के मजदूर, कृषि मजदूर, घर की सफाई करने वाले मजदूर, यह सब दैनिक , मासिक दिहाड़ी पर अपना श्रम बेचकर मेहनताना प्राप्त करते हैं, उसी से स्वयं के साथ परिवार का पालन पोषण होता है। मजदूर मजदूर ही होता है । उसे मजदूर समझकर हमेशा शोषण कर शोषित, कुपोषित, दरिद्र बना कर रखा जाता आया ओर आज भी यही स्थिति,  आज मजदूर का मासी मेहनताना 4000 से चलकर 15000 तक है, लेकिन मालिक की मर्जी से यह भी पूरा नहीं दिया जाता, मजदूरी तय है, लेकिन काम पर मालिक चाहे जब बुलाएं, "जितना श्रम उतना वेतन" इसके चलते श्रमिक का पेट पालना बड़ा दुर्लभ होता, ना स्वयं का विकास कर पाता है, ना आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ छोड़ पाता। श्रमिक का बेटा श्रमिक, शोषित की संतान शोषित।
पेट पालने की लालसा में ना ही वह संगठित हुए हैं, ना अपनी जुबान से कुछ बोलने का साहस कर पाए। जब चाहें मजदूरी से निकाल दिए जाते,  जब चाहे वेतन काट लिया जाता, मालिक की जी हजूरी जितने दिन, मजदूरी उतने दिन ! हम जी हजूरी, कम मजदूरी, श्रम ज्यादा अपना शारीरिक, मानसिक, आर्थिक शोषण आदि सब करा रहे, फिर भी हमें मजदूरी पूरे वर्ष भर नहीं मिल पा रही, कुछ बाहर जाकर हम करें तो कोरोना का कहर, आखिर हमारा होगा क्या ?
मार्च 2020 में लॉकडाउन लगने के बाद हम अपना सब कुछ छोड़ कर जी बचाने के लिए पैदल भूखे, प्यासे, गिड़गिड़ाते, सहायता के लिए हाथ जोड़ते, घर पहुंचने की अंतिम इच्छा से सैकड़ों  हजारों किलोमीटर से पैदल चलकर महीनों में घर पहुंचे जो कमाकर बच्चा रखे थे, वह सारा रास्ते में ही लुटा आए। दया, धर्म, मजहब कहीं किसी में दिखाई नहीं दिया, ना किसी ने पानी पिलाया ना भोजन! सारे कष्ट सहते हुए हम घर पहुंचे, यहां खाने को नहीं, आधे भूखे, आधे धाये ! 10 किलो गेहूं मिलते जिसमें कभी रोटी तो कभी दलिया, बनाकर पेट पाले, बच्चों की पढ़ाई लिखाई छुटी, ट्यूशन बंद हुआ, और कराते भी कैसे, मजदूरी खत्म हो गई।  आस-पड़ोस, सेठ- साहूकार, रिश्ते- नाते सबसे उधार लेकर पूरे साल खा लिया, नया साल लगते ही सोच, की मजदूरी जाऊंगा, कमा लूंगा, बच्चों के स्कूल खुल गए।  फैक्ट्री,  स्कुल, सेठ जी के घर, चौखटी  कहीं ना कहीं मजदूरी मिल ही जाएगी। अधिक नहीं तो थोड़े दाम सही, आत्मा में विश्वास होना ही था, क्योंकि बिहार,बंगाल  चुनाव का जोर शोर से प्रचार हो रहे थे, लाखों की संख्या में लोग रैलियां निकाल रहे,देश का प्रमुख इतनी बड़ी संख्या को सम्बोधित कर रहे हैं और कोरोना न्यूज बंद हो चुकी थी,  शादी पार्टियों में बाराती उमड़ने लगे थे, सोच रहा था कि अब कोरोना का खत्म होना तय हो चुका है, कोरोना होता तो चुनाव कायको होते, इन्हीं विचारों के साथ मजदूरी ढूंढने निकला।
अभी घर छोड़े एक महीना हुआ, सोचा था की लिया उधार चुका दूंगा और बच्चों को भी पढ़ा सकूंगा, लेकिन चुनाव का समय पूरा हुआ और महामारी का प्रकोप दोबारा से इतना बड़ा कि मुझे सेट ने वापिस मजदूरी से निकाल दिया। सेठ की भी मजबूरी है जब बिक्री नहीं होगी तो मजदूरी कैसे ? 
अब कोरोना का नया रूप प्रकट हुआ है और देश में भयावह स्थिति बनती जा रही है एवं लॉकडाउन और कर्फ्यू लगाने जैसे सख्त फैसले करने पड़ रहे हैं। क्योंकि चुनाव भी पूरे हो गए हैं और देश का प्रशासक  भी सायद यही चाहता है ! क्योंकि लोग कुछ मांग ना ले, कुछ देना ना पड़ जाए, कोरोना से बढ़ कर  और क्या हो सकता है जो लोगों की आवाज बंद कर सके। आज फिर से एक साल पुराने हालात हो गए, मजदूर अपने घरों की ओर पलायन को फिर मजबूर हो गए हैं।
खैर अब की बार समय दिया जा रहा है, हम सुरक्षित घर पहुंच जाएंगे, लेकिन चिंता है उधार वालों को क्या दूंगा, बच्चों को क्या खिलाऊंगा और कब तक यह चलता रहेगा। आखिर हमें मारने के लिए यह महामारी आई या तानाशाही, राजशाही शासकों को मनमर्जी से  सरकार चलाने की! चुनाव आए, बीमारी भाग गई। चुनाव गये बीमारी आ गई। चुनाव आए या जाए, बीमारी आए या जाए, हमें जरूरत दो वक्त की रोटी की है, वह कैसे मिले केंद्र ने गेहूं बंद कर दिए, राज्य सरकार के गेहूं से महीना भर दलिया भी बनाकर नहीं खा सकते, उधार मिलेगा नहीं, आखिर पेट कैसे भर सकेंगे, हमें चिंता केवल पेट की है।

 

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