कहीं बीमारियां न फैला दें, ये बीमारू नदियां - मीणा

Jan 15, 2025 - 18:42
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कहीं बीमारियां न फैला दें, ये बीमारू नदियां - मीणा

जैसे - जैसे नदियों की अविरलता ,स्वच्छता और सुन्दरता समाप्त होती जा रही है या यों कहें कि उनको मानवीय स्वार्थ के चलते जिस तरह बर्बाद करना शुरू कर दिया गया है, वैसे ही नदियों का स्वरूप, स्वभाव, वनस्पतियां यहां तक कि उनकी आंतरिक संरचनाएं भी बदल रही हैं। इसमें नदियों का क्या दोष, जब नदियों को मां की तरह मानने-पूजने वाला व्यक्ति ही उन्हें भूल गया,उसने उनको मां से डायन बना दिया, उस स्थिति में नदियों से क्या अपेक्षा की जा सकती है?  स्वाभाविक है कि उस बदहाली की दशा में वह अपने साथ अमृत की जगह ज़हर लेकर ही चलेंगी। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। कारण हमने उन्हें पतितपावनी, मोक्षदायिनी की जगह मैला गाडी़ जो बनाकर रख दिया है। हम चाहें किसी नदी विशेष की बात करें या फिर मां गंगा - यमुना की बात करें या फिर अपनी स्थानीय नदियों की, वह चाहे नारायणपुर की गुमनाम नदी हो, थानागाजी की रुपारेल नदी हो, कोटपुतली की साबी नदी हो, प्रतापगढ़ की अरवरीं नदी हो, सब के हालात एक जैसे ही हैं। असलियत यह है कि नदी स्वयं या फिर वह तथाकथित मां मानने वालों के अपनी लालसायें बढ़ने या फिर वह स्थानीय सरकार की उपेक्षापूर्ण नीतियों के चलते स्वयं बीमारियों से पीडि़त है। ऐसी स्थिति में वह अपनी बहाली के लिए जिम्मेदार लोगों से बदला तो लेंगी ही। सच यह भी है कि उन्हें इस बहाली का बदला लेना भी चाहिए, क्योंकि गलती नदियों की नहीं है। गलती तो उस लालची इंसान, सरकार और समाज की है जिसने अपनी हठधर्मिता के चलते नदियों को इस हालात में पहुंचाने का अपराध किया है। 

आज हम चाहें जिस नदी की बात करें, उन्हें अपने स्वरूप में बहने नहीं दिया जा रहा है। उनके पानी और नदी दोनों को रोका टोका जा रहा है। उपर बांध बांध कर मारने की कुत्सित साजिश की गयी जिससे नदियों का प्रवाह खत्म हुआ। अब तो नदियों के संरक्षण की बात नहीं की जाती बल्कि नदी जोड़ने की बातें होने लगी हैं। दुख इस बात का है कि सरकार नदी जोड़ने के दुष्परिणामों को नहीं जान रही, वह नदी के स्वभाव को नहीं पहचान रही है। आजकल राजस्थान में भी ग्यारह नदियों को एक साथ जोड़कर सूखे क्षेत्रों को पानी दार बनाने की बात सुर्खियों में है। नदियों को जोड़ने वाले इंजीनियर तैयार हैं। मशीनरी भी तैयार है। परिणाम क्या होंगे, इस बाबत अभी कोई अध्ययन भी नहीं किया गया है। ऐसी नादानी का परिणाम क्या होगा, यह जगजाहिर है। 
नदियों को रोकने की कहानी हम अच्छी तरह से राजस्थान के अलवर- जयपुर - कोटपूतली- बहरोड़ जिलों में देख सकते हैं।पानी दार क्षेत्रों को डार्क जोन में बदलते मात्र दो से तीन दशक ही लगे और लोगों को पता भी नहीं लगा। वे आज भी अंजान है कि हमारे हक का पानी कहां रुका, नदी क्यों नहीं बह रही। कृषि एवं पीने योग्य शुद्ध  मीठे जल की आपूर्ति सम्पूर्ण क्षेत्र में बराबर मात्रा में नदियों के अविरल प्रवाह से होती रही है,  लेकिन नदियों की दशा - दिशा दोनों ही बिगड़ गई, और यह तब हुआ जब समाज के भूगर्भ वैज्ञानिकों के उस पारंपरिक ज्ञान का अंत हुआ,  जो नदियों  के बहाव, नदी के पेटे की आंतरिक  संरचनाओं को अपने अनुभवों के साथ नज़दीकी से समझ रखते थे।  
  दुखदायी तो यह है कि आज पानी को रेंगना सिखाने के नाम पर उसे कंक्रीट की दीवारों से बांध कर नदी का गला घोंटा गया है।  उसे बगैर परिणाम जाने रोका गया है। मानवीय स्वार्थ ने नदियों के बहाव क्षेत्रों में फार्म-हाउस बना दिए। वे भी रसूखदारों के जिनका रसूख और असर सरकार में बैठे आकाओं पर है।  समाज में उनके सामने बोलने की हिम्मत किसी में है नहीं क्योंकि उनके खौफ से सब मौन साधे बैठे हैं। वर्तमान में यह हालात अलवर जिले में बहने वाली साबी नदी की सबसे बड़ी सहायक गुमनाम नदी में देखी जा सकती है।

असलियत यह है कि स्थानीय स्तर पर मैंने साबी नदी की सहायक नदी की भौगोलिक संरचनाओं, प्रवाह क्षेत्र, नदी बहाव क्षेत्रों पर पड़े दुष्प्रभावों के साथ नदी के बीमारू होने का गहन अध्ययन किया है। मैंने अध्ययन में पाया कि नदी के उद्गम से महज़ बीस मीटर, तीन सौ मीटर, एक किलोमीटर दूर पर बड़े कंक्रीट के बांध बना कर जल संरक्षण के नाम पर नदी को मारने की साज़िश की गयी है। यही नहीं इसके साथ रसूखदारों- सरमायेदारों द्वारा घने जंगल को नष्ट कर फार्म-हाउसों में तब्दील करने के साथ नदी के अवशेषों को मिटाया जा रहा है। यह स्थिति सभी छोटी- बड़ी नदी -नालों के साथ है। बहते पानी की जीवंत धारा के साथ ऐसा करने से बहाव क्षेत्र के दर्जनों गांवों में पानी पाताल में पहुंच गया है। नदी क्षेत्र कहें या नदी के पेटे में खेती होने लगी है।  वहीं नारायणपुर क्षेत्र में पहुंचते- पहुंचते लोग नदी को पहचानना तक भूल गए हैं और यह एक गंदे सडे़ नाले में तब्दील हो गई है। सच में वह कूड़ा गाडी बनकर रह गई है। नदियों के इस बदलते स्वरूप से नदियों के मरने सिलसिला शुरू हो चुका है। वह मीठे जल की जगह जहरीले पानी का स्रोत बन गयी है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं नदियां स्वयं बीमारी से ग्रस्त होने के साथ समाज को बीमारू न बना दें। अतः नदियों को जोड़ने की बजाय उन्हें बगैर रोक -टोक स्वतंत्र रूप से बहने दिया जाए जिससे नदी बची रह सके।जलापूर्ति हो सके,  वनस्पतियों को बचाया जा सके, वन्य जीवों को संरक्षण प्राप्त हो सके तथा समाज को बीमारू होने से बचाया जा सके। 
-- राम भरोस मीणा ,पर्यावरणविद् एवं समाज विज्ञानी ।

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