अहिच्छत्रा से प्राप्त प्राचीनतम जैन पुरावशेष

Jan 24, 2025 - 18:40
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अहिच्छत्रा से प्राप्त प्राचीनतम जैन पुरावशेष

जयपुर (कमलेश जैन) अहिच्छत्रा की गणना भगवान ऋषभदेव द्वारा निर्मित भारत के प्राचीन 52 जनपदो मे एक पांचाल जनपद की राजधानी के रूप मे मिलती है। महाभारत काल  मे पांचाल दो भागो मे विभक्त हो गया जिसमे उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्रा द्रोणाचार्य  और दक्षिण पांचाल की राजधानी काम्पिल द्रुपद के अधिकार मे थी।शतपत ब्राह्मण मे इसे परिचक्रा कहा गया है तो महाभारत मे छत्रवती,अहिछत्रा,अहिछेत्र तथा पाणिनि के अष्टाध्यायी और हरिवंश पुराण मे भी यही रूप पाए जाते हैं।जैन ग्रंथो मे इसे संख्यावती और अहिछेत्र नाम पाए जाते हैं।अहिछेत्र ही इसका प्रमुख नाम था जिसके साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध है।
अहिच्छत्रा के ध्वंसावशेषों से प्राप्त पुरावशेषो से ताम्रयुगीन मानवाकृतियां(हार्पून) भाले तलवार कडे आदि (2000 से 700 ई पूर्व) तथा पेंटेड ग्रे वेयर कहे जाने वाले बर्तनो के अवशेष(1500से700 ई पूर्व)  प्राप्त हुए है जो इस नगर के चार हजार साल के इतिहास और पुरातात्व समझने मे सहायक है।पांचाल से प्राप्त इन विशेष मृण मूर्ति कला को अहिछत्रा स्कूल ऑफ टेराकोटा आर्ट कहा जाता है।
 भारत की प्राचीनतम जैन प्रतिमा - प्राक् मौर्य कालीन (लगभग 700 ई पूर्व) की  सप्त सर्पफण से सुशोभित पार्श्वनाथ की एक दुर्लभ मृण मूर्ति का शीर्ष प्राप्त हुआ है जो भारत मे प्राप्त अबतक के जैन अवशेषो मे सबसे प्राचीन है और अति दुर्लभ है।इसका चित्र डायरेक्टर आर्कलाजिकल सर्वे आफ इंडिया  (नई दिल्ली )कार्यालय के सौजन्य से विकीपीडिया से प्राप्त हुआ है।(चित्र 1)संभवतः इसी काल की एक पकी मिट्टी की मृण मूर्ति का कायोत्सर्ग खड्गासन अवस्था की पैर के नीचे एवं वक्ष के ऊपर से खण्डित है (चित्र 2) यह और कुछ अन्य मृण एवं पाषाण मूर्तिया और अवशेष पं सुरेंद्र मोहन मिश्रा के व्यक्गित संग्रहालय मे संग्रहित है।इसी प्रकार की मृण  मूर्तियां अयोध्या,बनारस ,कौशांबी,पिपहरवा,वैशाली आदि स्थानो से भी प्राप्त हुई है जिनमे अयोध्या से प्राप्त 4 सदी ई पूर्व की जिन केवलिन की खंडित मृण मूर्ती(चित्र 3) और बनारस की शुंग कालीन देवी अंबिका मृण मूर्ति(चित्र 4 )को मैने ही प्रथम बार प्रकाशित कराया था।इसी तरह की शुंग कालीन नागदेवी की मूर्ति मृण मूर्ति (जिसै संभवतः देवी पद्मावती की भी मानी जा सकता है (चित्र 5 )उल्लेखनीय है।शुंग कालीन पकी मिट्टी का एक मृण्फलक जिसपर दो सर्पो की आक्रतियां बनी हैं (चित्र 6) जिसे संभवत नागराज धरणेंद्र और देवी पद्मावती की स्मृति रूप मे निर्मित किया गया होगा यह भी दर्शनीय है।कुछ यक्ष प्रतिमाऍ अज मुखी (बकरे के मुख) वाली मिलती है जिनको विद्वान नैगमेश के रूप मे देखते है जिनका उल्लेख श्वेतांबर जैन परंपरा मे महावीर के भ्रूण प्रत्यारोपण करने वाले देव के रूप मे हुआ है।इसी क्रम मे पं सुरेंद्र मोहन मिश्र के व्यक्गित संग्रहालय मे इनके साथ ही शुंग कालीन पाषाण का खड्गासन धड जो गर्दन और पैरों से खंडित है (चित्र 7)। एक गुप्त कालीन पद्मासन तीर्थंकर किसी मंदिर के स्तंभ का भाग है( चित्र 8)।एक स्तंभ (गुप्त कालीन )का कुछ भाग खंडित अवस्था मे किले के ऊपर है के चित्र मे है इसी काल का इसी प्रकार का एक स्तंभ (कहाऊ) देवरिया मे आज भी देखा जा सकता है ।एक अन्य शीर्ष विहीन पाषाण पद्मासन मध्यकालीन मूर्ति (चित्र 9)एक प्रस्तर प्रतिमा पर प्रभामंडल के साथ किन्नर देव एवं हस्तिसवार अंकित है।अहिछेत्र नाम सर्पफण और पार्श्वनाथ से संबंधित मूर्तियां देशभर मे ई पूर्व काल से ही मिलते है जिनमे इन सबके साथ ही दो हजार साल से भी प्राचीन (चित्र10)
शैलेन्द्र कुमार जैन लखनऊ अध्यक्ष आदिनाथ मेमोरियल ट्रस्ट के अनुसार मुंबई,अलुवारा,लखनऊ, मथुरा आदि की इन मूर्तियो से तथा पभोषा अहिछत्रा 11आदि के अभिलेखो एवं पुरावशेसो से इस  विषय का ऐतिहासिक समर्थन होता है।

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