सामाजिक व्यवस्थाओं को शामिल करें विकास के एजेंडे में - राम भरोस मीणा

Jun 19, 2023 - 18:36
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सामाजिक व्यवस्थाओं को शामिल करें विकास के एजेंडे में - राम भरोस मीणा

थानागाजी,अलवर(रामभरोस मीना)

सामाजिक व्यवस्थाओं  परम्पराओं को विकास  से दुर रखने के साथ रुढिया मानना व्यक्ति की भुल है, बिगड़ते हालातों में उन सभी व्यवस्थाओं, मान्यताओं, परम्पराओं को पुनः विकसित करने की आवश्यकता है जिनसे मानवीय विकास के साथ प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में सक्षमता हासिल हो सकें, और यह कार्य मानव समाज ही कर सकता है सरकारें नहीं। समाज की व्यवस्थाओं, आवश्यकताओं, उपयोग के सामाजिक नियमों में उन सभी पदार्थों, वस्तुओं, प्राकृतिक संसाधनों (नदी नालों बीहड़ों जंगलों पठारों पहाड़ों मैदानों ) के उपयोग को लेकर सम्पूर्ण मानव समाज चिंतित था, उन्हें उन सभी की आवश्यकता थी।
            पिछले 7 दशकों में मानवीय विकास चर्म पर पहुंचा उससे कहीं सैकड़ों गुणा अधिक की प्राकृतिक सम्पत्तियां खो चुके जिनके विनाश से ना केवल प्रकृति पर प्रभाव पड़ा बल्कि मानव व सभी जीवों को भी खामियाजा भुगतना पड़ा। बढ़ते शहरीकरण ने उन सभी मर्यादाओं, मान्यताओं,  परम्पराओं को त्यागा ही नहीं बल्कि पुर्ण रुप से अनदेखा कर कंक्रीट के दर्जनों मंजिल ऊंची  इमारतें बनाई, शहरीकरण को बढ़ावा दिया, पहाड़ों को सुविधा के नाम पर चीरा, नदियों को अवरोधित किया, सड़कों व रेल लाइनों का जाल बिछाया तथा धुआं उगलने वाले कारखाने स्थापित किया, बदलें में हमारी संस्कृति, परमपराएं, हमारे नियम कानून, प्रकृति से लागाव, नदियों, पहाड़ों, पेड़ पौधों, वन्य जीवों, कृषि भूमि के प्रति बनीं आस्थाओं,रहन सहन के परम्परागत तरीके, कुटीर उद्योगों, प्राकृतिक स्वच्छता, सुन्दरता को छिन्न भिन्न कर एक अजीब इन्सान बना दिया जो आज स्वयं मजबूत होते हुए कमजोर बना हुआ है, केवल सरकारी घोषणाओं के चक्कर में या गुणवत्ता पुर्ण रोजगारोन्मुखी व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त नहीं होने के चलते । 
       गांधी, नेहरू, अम्बेडकर ने यह अनेकों बार कहां था कि हम सभी विकास प्राकृतिक संसाधनों एवं मानवीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए करें जिससे पारिस्थितिकी तंत्र हमारे अनुकूल बना रहे। श्री कृष्ण ने भी पेड़ पौधों पहाड़ों नदियों की रक्षा के लिए अपने उपदेशों में कहां था कि इनके साथ छेड़ छाड़ नहीं करनी चाहिए, यदि किया गया तों ये हमें माफ़ नहीं करेगी। साधु संत, कवि लेखक, समाज सुधारक, प्रकृति प्रेमियों ने हमेशा प्रकृतिप्रदत्त संसाधनों के संरक्षण के साथ उनकी रक्षा की बात कही सत्य भी है, करनी चाहिए। आज एका एक जो बदलाव प्रकृति में दिखाई दे रहें हैं वो क्या है? क्यों है? समझना अति आवश्यक है। राजस्थान में जोहड़ की संस्कृति देश की नहीं विश्व की सबसे बड़ी संस्कृति रहीं जो जल व्यवस्था को पुरे वर्ष बनाएं रखने में सक्षम थीं, नाड़ियों का निर्माण, जल स्रोतों की स्वच्छता, नदियों की मान्यता सब व्यक्ति के व्यक्तित्व को दर्शाने के साथ परम्पराओं, मान्यताओं, सामाजिक व्यवस्थाओं में सामिल रहीं, 1965 के बाद विकासवादी सोच ने महज़ 7 दशकों में 85 प्रतिशत सामाजिक व्यवस्थाओं को खत्म कर दिया, देव बनीं, गौरवें, अरण्य, रूंध, बिहड़, नाड़ियां 95 प्रतिशत खत्म हो गई,  देश की वे सभी छोटी नदियां जो भू गर्भीक जल संग्रह के साथ जलीय जीवों के आश्रय स्थल थी 60 प्रतिशत अतिक्रमण की बलि चढ़ गई, प्राकृतिक वातावरण 60 प्रतिशत से अधिक दूषित हो चुका जो किसी भी प्राणी के अनुकूल नहीं है, इन सभी का श्रेय वर्तमान विकास व सरकारी नियमों कानूनों में हुएं संशोधनों का परिणाम है, जिसका खामियाजा आम जन के साथ जीव जंतुओं को भी भुगतना पड़ रहा है।
           आज देश में त्राहि मचा रहे बिपरजाॅए को एक तरफ़ प्राकृतिक आपदा कहें तो दुसरी तरफ़ बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम जो भी हो, लेकिन पिछले डेढ़ दशक में जो प्राकृतिक आपदाएं देश में बढ़ी, चाहें ग्लेशियरों के पिघलने, बादलों के फटने, धरती के धंसने से हिमालयन क्षेत्र, केरला, तमिलनाडू, कर्नाटक, गुजरात, आसाम, बिहार या पश्चिम राजस्थान में बदलते बादलों के रुख़ से जो भी हुई कहीं ना कहीं प्रकृति के साथ मानव स्वयं इसका जिम्मेदार है, और वह प्राकृतिक संसाधनों के साथ बड़े अत्याचार का परिणाम भी। नदियों नालों को पांट कर बनाएं शहरों में बने बाढ़ के हालात के लिए मानव स्वयं जिम्मेदार हैं, हमें उन सभी भौगोलिक धरातलीय संरचनाओं का अध्ययन करना चाहिए, जिन्हें अनदेखा करने से आगामी समय में प्राकृतिक आपदाएं उत्पन्न हो सकती हों, लेकिन ऐसा नहीं होता, अवैध तरीके से हो रहा विकास विनाश की ओर बढाता है जिससे सभी प्रकार की समस्याएं पैदा होती है।आज व्यक्ति समाज व सरकार को चाहिए कि वह उस विकास को विकास मानकर आगे ना बढ़े जो विनाश को न्योता दे। हमें वही कार्य करने चाहिए जिनसे हमारे साथ साथ अन्य सभी सुखमय जीवन जी सकें, आनन्द से रह सकें, विपरीत परिस्थितियों में एक दुसरे का साथ दे सकें और वह तब ही सम्भव हो सकता है जब हम प्रकृति के साथ मिलकर, प्राकृतिक संसाधनों का ख्याल रखते हुए विकास की ओर आगे बढ़े, इसमें प्रत्येक व्यक्ति, समाज, संगठन, सरकारी व ग़ैर सरकारी संस्थानों को मिलकर बड चढ़ कर हिस्सा लेना होगा तथा अपने निजी स्वार्थ को त्याग कर प्रकृति के संरक्षण के कार्य करने होंगे। लेखक के अपने निजी विचार है।
लेखक:-  राम भरोस मीणा पर्यावरणविद् व समाज विज्ञानी है।

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