हिन्दी साहित्य के प्रतिभाशाली मूर्धन्य साहित्यकार डॉ . रांगेय राघव की जीवनी

Jan 16, 2024 - 07:42
Jan 16, 2024 - 10:52
 0
हिन्दी साहित्य के प्रतिभाशाली मूर्धन्य साहित्यकार डॉ . रांगेय राघव की जीवनी

वैर.......हिंदी साहित्य के प्रतिभाशाली मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी 1923 को उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ।इनके पूर्वज मूलतः दक्षिण के आंध्र प्रदेश के आरकट् के निवासी थे। इनके दादा श्री निवासाचाय की विद्वता से प्रभावित होकर तत्कालीन जयपुर नरेश ने उन्हें वैर की जागीर उपहार स्वरूप सौंपी थी ।बाद में वैर कस्वा में सीताराम जी का मंदिर स्थापित करके उन्हें उसका पुरोहित नियुक्त किया था। डॉ. रांगेय राघव का विद्याभ्यास 6 वर्ष की आयु तक वैर में ही घर पर हुआ था। इसके बाद आगरा के सेंन्ट विक्टोरिया स्कूल में भर्ती करा दिया गया। उनके मंझले भाई ने लिखा है, कि जब वह 6 साल की उम्र में स्कूल भेजा जाता तो हर सवेरे कोई ना कोई बहाना ढूंढकर स्कूल न जाने के लिए रोने लगता और परिवारीजन उसकी इस हरकत पर हंसने लगते, कोई नहीं जानता कि पढ़ाई से डरकर रोने वाला यह लड़का एक दिन किताबों को ही अपना जीवन अर्पित कर देगा ।डॉ. रांगेय राघव ने सेंन्ट जोन्स कॉलेज से 1941 में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी अवधि में उनका प्रथम उपन्यास, घरौंदा लिखा गया। आगरा विश्वविद्यालय से इन्होंने प्रो. हरिहर नाथ टंण्डन के निर्देशन में भारतीय मध्यकाल का मनन और गोरखनाथ विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की ।शोध के दौरान शांन्ति निकेतन में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सानिध्य भी प्राप्त हुआ। संस्कृत के प्रति उन्हें प्रारंभ्भ से अभिरुचि थी। रांगेय राघव की प्रारंभ्भिक रचना कॉलेज की पत्रिका में उनके वास्तविक नाम तिरुमल्ल नम्बाकम वीर राघव आचार्य के नाम से प्रकाशित हुई। बाद में अपने मित्र भारतभूषण अग्रवाल के सुझाव पर उन्होंने अपना नाम रांगेय राघव रख लिया और साहित्य जगत में उनका यही नाम विशिष्ट पहचान बना सका। इनको हिंदी का शेक्सपियर तथा द्वितीय प्रेमचंद भी कहा गया है रांगेय राघव की सबसे बड़ी विशेषता उनकी मिलन सारिता थी। उनका विनोद पूर्ण स्वभाव और सत्य के प्रति स्पष्टवादिता ने उनके संम्पर्क में आने वालों पर गहरा प्रभाव छोड़ा। लेखन कार्य के मानसिक श्रम के उपरांन्त वे अपनी थकान सिगरेट से ही मिटाते थे ।वे कहते भी थे, कि सिगरेट लिखते समय तक ऐसा इंन्टवल देती है, जिसमें आदमी खूब सोच सकता है ।अपनी इसी मान्यता के कारण वे सिगरेट चेन स्मोकर बन गए और यह आदत उनको प्राणघातक सिद्ध हुई। इसके अतिरिक्त उनको कोई व्यसन नहीं था। सहृदयता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। राह चलते यदि उनको कोई ठंड में ठिठुरता दिखाई देता तो वे अपना दुशाला या कोट उतारकर सहज ही दे देते थे । रिक्शे तांगे वाले को बिना मोलभाव किये अधिक किराया देते थे। डॉ.रांगेय राघव धार्मिक आडम्बर और कट्टरता के विरोधी थे ।चित्रकला, संगीत, डायरी लेखन और पुरातत्व खोज में भी विशेष रूचि रखते थे। सार्वजनिक कार्यों में विशेष अभिरुचि रखते थे ।सामान्य, नागरिक सुविधाओं से वंचित वैर जैसे छोटे गांव की मिट्टी की खुशबू में रांगेय राघव का रचनात्मक व्यक्तित्व विकसित हुआ । डॉ . रांगेय राघव आकर्षक और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे ।उनके व्यक्तित्व में जहां एक ओर सौभ्यता और सरलता झलकती थी वहीं दूसरी ओर उनकी विद्वता और प्रतिभा उनके व्यक्तित्व को आभिजात्य गरिमा प्रदान करती थी‌। ‌डॉ.रांगेय राघव एक जिंदा दिल इंसान थे ।वे सदा कल्पना और चिंतन में डूबे रहते थे ।शोषण की पूंजीवादी व्यवस्था से घृणा करते थे। उनकी सच के प्रति संकल्प वान निष्ठा से उन्हें जीवन में निरंन्तर आर्थिक कष्ट झेलने पड़े ।वे प्रायः 16 से 18 घंटे चिंन्तन और लेखन में बिताते थे ।जितनी देर में कोई पाठक कोई पुस्तक पढ़ता है उतनी अवधि में वे पुस्तक लिख देते थे ।विशेष रूप में डॉ. रांगेय राघव साहित्य जगत में नई विधाओं सजेता के रूप में भी माने जाते हैं। जिनमें जीवन चरितात्मक उपन्यास, रिपोर्ताज , महायात्रा गाथा विधाय इन्हीं की देन है ।अन्य किसी साहित्यकार ने ऐसी विधा पूर्व में नहीं लिखी ।इनको हिंदुस्तान अकादमी पुरस्कार 1947, डालमिया पुरस्कार 1953, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार उत्तर प्रदेश ,साहित्य अकादमी पुरस्कार, महात्मा गांधी पुरस्कार ,राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। डॉ.रांगेय राघव के व्यक्तित्व के बारे में पश्चिमी विद्वान मैनेण्डर की पंक्तियां सत्य साबित होती है। कि भगवान प्रतिभाशाली व्यक्तियों को अधिक जीवन प्रदान नहीं करता, परन्तु प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने जीवन के अल्पकाल में अपने कार्यों की ऐसी छटा दिखाते हैं कि अपने जीवन और जगत उनके कृत्यो से अलौकिक हो जाता है। यह मूल्यत कथाकार रहे, लेकिन इनके कृतित्व का प्रारंभ कविता से तथा अंन्त भी कविता से हुआ है।

 डॉ . रांगेय राघव की अंतिम कविता

 जब मयकदे से निकला मैं राह के किनारे 

मुझसे पुकार बोला प्याला वहां पड़ा था,

 है कुछ दिनों की गर्दिश धोखा नहीं है लेकिन

 इस धूल से ना डारना, इसमें सदा सहारा।

 इन्होंने अपने लेखनकला में 150 से अधिक पूर्ण कृतियां लिखी राधवायण महाकाव्य लेखन तथा वैर में तपोभूमि विश्वविद्यालय बनाने का सपना अल्पायु के कारण अधूरा रह गया। वर्तमान तक इनके साहित्य पर शोध कार्यो का शतक पूर्ण हो चुका है‌ तथा यात्रा जारी है ।डॉ. साहब कहते थे कि यदि आप चाहते कि दुनिया से विदा हो जाने के बाद भी हमें कोई याद रखे तो कुछ ऐसा कर जाओ जो इस योग्य हो ।

अपनी मृत्यु से कुछ क्षण पहले को उनकी कविता कहती है 

ओ ज्योतिर्मयि। क्यो फेंका है 

मुझको इस संसार में, जलते रहने को कहते हैं इस गीली मंझधार में। 

ऐसे अद्वितीय प्रतिभाशाली मूर्धन्य साहित्यकार 12 सितंबर 1962 को हमारे मध्य से अमर रहते हुए अदृश्य में विलीन हो गए।

लेखक डॉ . बालकृष्ण शर्मा श्रोत्रिय, प्राचार्य श्री रांगेय राघव महाविद्यालय,वैर भरतपुर

like

dislike

love

funny

angry

sad

wow