नागा बनने के लिए 108 बार डुबकी, खुद का पिंडदान:पुरुषों की नस खींची जाती है; महिलाओं को देनी पड़ती है ब्रह्मचर्य की परीक्षा

1 फरवरी 1888, प्रयाग में कुंभ चल रहा था। इसी बीच ब्रिटेन के अखबार ‘मख्जान-ए-मसीही’ में कुंभ को लेकर एक खबर छपी। खबर में लिखा था- ‘कुंभ में 400 वस्त्रहीन साधुओं ने जुलूस निकाला। लोग इनके दर्शन के लिए दोनों तरफ खड़े थे। कुछ लोग इनकी पूजा भी कर रहे थे। इनमें पुरुषों के साथ महिलाएं भी थीं। एक अंग्रेज अफसर इनके लिए रास्ता बनवा रहा था। ब्रिटेन में सरकार न्यूडिटी पर सजा देती है, लेकिन इंडिया में तो वस्त्रहीन साधुओं के जुलूस में जॉइंट मजिस्ट्रेट रैंक का अफसर भेजा जा रहा। ये दुखद है।’ इसके बाद ईसाइयों की सबसे बड़ी संस्था ‘क्रिश्चियन ब्रदरहुड' के अध्यक्ष आर्थर फोए ने ब्रिटेन के एक सांसद को चिट्ठी लिखी। फोए ने लिखा- ‘वस्त्रहीन साधुओं के जुलूस से तो शिक्षित हिंदू समाज भी शर्म से गड़ जाता है। इस काम के लिए ब्रितानी सरकार ने अंग्रेज अफसर को क्यों तैनात किया? ऐसा करना ईसाई धर्म के लिए शर्म की बात है। ऐसा लगता है कि भारतीयों ने अंग्रेजों को झुका दिया है।’ 16 अगस्त 1888 को सरकार ने फोए की चिट्ठी का जवाब देते हुए लिखा- 'इलाहाबाद और बाकी जगहों पर ये साधु परंपरागत रूप से शोभायात्रा निकालते हैं। ये हिंदू समाज में बहुत पवित्र माने जाते हैं। हमें तो इनमें कोई बुराई नहीं दिखती।’ वस्त्रहीन जुलूस निकालने वाले ये साधु ‘नागा संन्यासी’ थे। हर बार कुंभ में पहला शाही स्नान नागा संन्यासी ही करते हैं। ‘महाकुंभ के किस्से’ सीरीज के चौथे एपिसोड में आज कहानी नागा संन्यासी बनने की… नागा शब्द संस्कृत के ‘नग’ से बना है। नग मतलब पहाड़। यानी पहाड़ों या गुफाओं में रहने वाले नागा कहलाते हैं। 9वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी संप्रदाय की शुरुआत की। ज्यादातर नागा संन्यासी इसी संप्रदाय से आते हैं। इन संन्यासियों को दीक्षा देते वक्त दस नामों से जोड़ा जाता है। ये दस नाम हैं- गिरी, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम और सरस्वती। इसलिए नागा साधुओं को दशनामी भी कहा जाता है। नागा संन्यासी दो तरह के होते हैं- एक शास्त्रधारी और दूसरा शस्त्रधारी। दरअसल, मुगलों के आक्रमण के बाद सैनिक शाखा शुरू करने की योजना बनी। शुरुआत में कुछ नागा साधुओं ने इसका यह कहते हुए विरोध किया कि वे आध्यात्मिक हैं, उन्हें शस्त्र की जरूरत नहीं। बाद में शृंगेरी मठ ने शस्त्र-अस्त्र वाले नागा साधुओं की फौज तैयार की। पहले इसमें सिर्फ क्षत्रिय शामिल होते थे। बाद में जातियों का बैरियर हटा दिया गया। नागा बनने की 3 स्टेज, अखाड़े वाले घर जाकर करते हैं पड़ताल आमतौर पर नागा बनने की उम्र 17 से 19 साल होती है। इसके तीन स्टेज हैं- महापुरुष, अवधूत और दिगंबर, लेकिन इससे पहले एक प्रीस्टेज यानी परख अवधि होती है। जो भी नागा साधु बनने के लिए अखाड़े में आवेदन देता है, उसे पहले लौटा दिया जाता है। फिर भी वो नहीं मानता, तब अखाड़ा उसकी पूरी पड़ताल करता है। अखाड़े वाले उम्मीदवार के घर जाते हैं। घर वालों को बताते हैं कि आपका बेटा नागा बनना चाहता है। घरवाले मान जाते हैं तो उम्मीदवार का क्रिमिनल रिकॉर्ड देखा जाता है। इसके बाद नागा बनने की चाह रखने वाले व्यक्ति को एक गुरु बनाना होता है और किसी अखाड़े में रहकर दो-तीन साल सेवा करनी होती है। वरिष्ठ संन्यासियों के लिए खाना बनाना, उनके स्थानों की सफाई करना, साधना और शास्त्रों का अध्ययन करना, इनका काम होता है। वह एक टाइम ही भोजन करता है। काम वासना, नींद और भूख पर काबू करना सीखता है। इस दौरान यह देखा जाता है कि वो मोह-माया के चक्कर में तो नहीं पड़ रहा। उसे घर-परिवार की याद तो नहीं आ रही। अगर कोई उम्मीदवार भटका हुआ पाया जाता है, तो उसे घर भेज दिया जाता है। पहली स्टेज- महापुरुष : गुरु प्रेम कटारी से शिष्य की चोटी काटते हैं जो परख अवधि में खरा उतरता है, उसे वापस संसारी दुनिया में लौटने की सलाह दी जाती है। फिर भी वह नहीं लौटता है, तो उसे संन्यास जीवन में रहने की प्रतिज्ञा दिलाई जाती है। उसे 'महापुरुष' घोषित करके पंच संस्कार किया जाता है। पंच संस्कार यानी शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को गुरु बनाना पड़ता है। अखाड़े की तरफ से इन्हें नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत सहित नागाओं के प्रतीक और आभूषण दिए जाते हैं। इसके बाद गुरु अपनी प्रेम कटारी से शिष्य की शिखा यानी चोटी काट लेते हैं। इस मौके पर शीरा और धनियां बांटा जाता है। दूसरी स्टेज- अवधूत : जीते जी खुद का पिंडदान, 108 डुबकियां लगानी पड़ती हैं महापुरुष को अवधूत बनाने के लिए सुबह चार बजे उठाया जाता है। नित्य कर्म और साधना के बाद गुरु इन्हें लेकर नदी किनारे पहुंचते हैं। उसके शरीर से बाल हटाकर नवजात बच्चे जैसा कर देते हैं। नदी में स्नान कराया जाता है। वह पुरानी लंगोटी छोड़कर नई लंगोटी धारण करता है। इसके बाद गुरु जनेऊ पहनाकर दंड, कमंडल और भस्म देते हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर धनंजय चोपड़ा अपनी किताब 'भारत में कुंभ' में लिखते हैं- ‘महापुरुष नागाओं को तीन दिन तक उपवास रखना होता है। फिर वह खुद का श्राद्ध करता है। उसे 17 पिंड दान करने होते हैं। 16 अपने पूर्वजों के और 17वां पिंडदान खुद का। इसके बाद वह सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। वह नया जीवन लेकर अखाड़े में लौटता है।’ इसके बाद आधी रात में विरजा यानी विजया यज्ञ किया जाता है। गुरु एक बार फिर महापुरुष से कहते हैं कि वो चाहे तो सांसारिक जीवन में लौट सकता है। जब वह नहीं लौटता तो यज्ञ के बाद अखाड़े के आचार्य, महामंडलेश्वर या पीठाधीश्वर महापुरुष को गुरुमंत्र देते हैं। इसके बाद उसे धर्म ध्वजा के नीचे बैठाकर ऊं नम: शिवाय का जाप कराया जाता है। अगले दिन सुबह चार बजे महापुरुष को फिर गंगा तट पर लाया जाता है। 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। इसके बाद दंड-कमंडल का त्याग कराया जाता है। अब वह अवधूत संन्यासी बन जाता है। इस 24 घंटे की प्रक्रिया में उसे उपवास रखना होता है। तीसरी स्टेज- दिगंबर : जननांग की नस खींची जाती, कुंभ में शाही स्नान के बाद बनते हैं नागा 'भारत में महा

Jan 15, 2025 - 19:18
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नागा बनने के लिए 108 बार डुबकी, खुद का पिंडदान:पुरुषों की नस खींची जाती है; महिलाओं को देनी पड़ती है ब्रह्मचर्य की परीक्षा
1 फरवरी 1888, प्रयाग में कुंभ चल रहा था। इसी बीच ब्रिटेन के अखबार ‘मख्जान-ए-मसीही’ में कुंभ को लेकर एक खबर छपी। खबर में लिखा था- ‘कुंभ में 400 वस्त्रहीन साधुओं ने जुलूस निकाला। लोग इनके दर्शन के लिए दोनों तरफ खड़े थे। कुछ लोग इनकी पूजा भी कर रहे थे। इनमें पुरुषों के साथ महिलाएं भी थीं। एक अंग्रेज अफसर इनके लिए रास्ता बनवा रहा था। ब्रिटेन में सरकार न्यूडिटी पर सजा देती है, लेकिन इंडिया में तो वस्त्रहीन साधुओं के जुलूस में जॉइंट मजिस्ट्रेट रैंक का अफसर भेजा जा रहा। ये दुखद है।’ इसके बाद ईसाइयों की सबसे बड़ी संस्था ‘क्रिश्चियन ब्रदरहुड' के अध्यक्ष आर्थर फोए ने ब्रिटेन के एक सांसद को चिट्ठी लिखी। फोए ने लिखा- ‘वस्त्रहीन साधुओं के जुलूस से तो शिक्षित हिंदू समाज भी शर्म से गड़ जाता है। इस काम के लिए ब्रितानी सरकार ने अंग्रेज अफसर को क्यों तैनात किया? ऐसा करना ईसाई धर्म के लिए शर्म की बात है। ऐसा लगता है कि भारतीयों ने अंग्रेजों को झुका दिया है।’ 16 अगस्त 1888 को सरकार ने फोए की चिट्ठी का जवाब देते हुए लिखा- 'इलाहाबाद और बाकी जगहों पर ये साधु परंपरागत रूप से शोभायात्रा निकालते हैं। ये हिंदू समाज में बहुत पवित्र माने जाते हैं। हमें तो इनमें कोई बुराई नहीं दिखती।’ वस्त्रहीन जुलूस निकालने वाले ये साधु ‘नागा संन्यासी’ थे। हर बार कुंभ में पहला शाही स्नान नागा संन्यासी ही करते हैं। ‘महाकुंभ के किस्से’ सीरीज के चौथे एपिसोड में आज कहानी नागा संन्यासी बनने की… नागा शब्द संस्कृत के ‘नग’ से बना है। नग मतलब पहाड़। यानी पहाड़ों या गुफाओं में रहने वाले नागा कहलाते हैं। 9वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी संप्रदाय की शुरुआत की। ज्यादातर नागा संन्यासी इसी संप्रदाय से आते हैं। इन संन्यासियों को दीक्षा देते वक्त दस नामों से जोड़ा जाता है। ये दस नाम हैं- गिरी, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम और सरस्वती। इसलिए नागा साधुओं को दशनामी भी कहा जाता है। नागा संन्यासी दो तरह के होते हैं- एक शास्त्रधारी और दूसरा शस्त्रधारी। दरअसल, मुगलों के आक्रमण के बाद सैनिक शाखा शुरू करने की योजना बनी। शुरुआत में कुछ नागा साधुओं ने इसका यह कहते हुए विरोध किया कि वे आध्यात्मिक हैं, उन्हें शस्त्र की जरूरत नहीं। बाद में शृंगेरी मठ ने शस्त्र-अस्त्र वाले नागा साधुओं की फौज तैयार की। पहले इसमें सिर्फ क्षत्रिय शामिल होते थे। बाद में जातियों का बैरियर हटा दिया गया। नागा बनने की 3 स्टेज, अखाड़े वाले घर जाकर करते हैं पड़ताल आमतौर पर नागा बनने की उम्र 17 से 19 साल होती है। इसके तीन स्टेज हैं- महापुरुष, अवधूत और दिगंबर, लेकिन इससे पहले एक प्रीस्टेज यानी परख अवधि होती है। जो भी नागा साधु बनने के लिए अखाड़े में आवेदन देता है, उसे पहले लौटा दिया जाता है। फिर भी वो नहीं मानता, तब अखाड़ा उसकी पूरी पड़ताल करता है। अखाड़े वाले उम्मीदवार के घर जाते हैं। घर वालों को बताते हैं कि आपका बेटा नागा बनना चाहता है। घरवाले मान जाते हैं तो उम्मीदवार का क्रिमिनल रिकॉर्ड देखा जाता है। इसके बाद नागा बनने की चाह रखने वाले व्यक्ति को एक गुरु बनाना होता है और किसी अखाड़े में रहकर दो-तीन साल सेवा करनी होती है। वरिष्ठ संन्यासियों के लिए खाना बनाना, उनके स्थानों की सफाई करना, साधना और शास्त्रों का अध्ययन करना, इनका काम होता है। वह एक टाइम ही भोजन करता है। काम वासना, नींद और भूख पर काबू करना सीखता है। इस दौरान यह देखा जाता है कि वो मोह-माया के चक्कर में तो नहीं पड़ रहा। उसे घर-परिवार की याद तो नहीं आ रही। अगर कोई उम्मीदवार भटका हुआ पाया जाता है, तो उसे घर भेज दिया जाता है। पहली स्टेज- महापुरुष : गुरु प्रेम कटारी से शिष्य की चोटी काटते हैं जो परख अवधि में खरा उतरता है, उसे वापस संसारी दुनिया में लौटने की सलाह दी जाती है। फिर भी वह नहीं लौटता है, तो उसे संन्यास जीवन में रहने की प्रतिज्ञा दिलाई जाती है। उसे 'महापुरुष' घोषित करके पंच संस्कार किया जाता है। पंच संस्कार यानी शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को गुरु बनाना पड़ता है। अखाड़े की तरफ से इन्हें नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत सहित नागाओं के प्रतीक और आभूषण दिए जाते हैं। इसके बाद गुरु अपनी प्रेम कटारी से शिष्य की शिखा यानी चोटी काट लेते हैं। इस मौके पर शीरा और धनियां बांटा जाता है। दूसरी स्टेज- अवधूत : जीते जी खुद का पिंडदान, 108 डुबकियां लगानी पड़ती हैं महापुरुष को अवधूत बनाने के लिए सुबह चार बजे उठाया जाता है। नित्य कर्म और साधना के बाद गुरु इन्हें लेकर नदी किनारे पहुंचते हैं। उसके शरीर से बाल हटाकर नवजात बच्चे जैसा कर देते हैं। नदी में स्नान कराया जाता है। वह पुरानी लंगोटी छोड़कर नई लंगोटी धारण करता है। इसके बाद गुरु जनेऊ पहनाकर दंड, कमंडल और भस्म देते हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर धनंजय चोपड़ा अपनी किताब 'भारत में कुंभ' में लिखते हैं- ‘महापुरुष नागाओं को तीन दिन तक उपवास रखना होता है। फिर वह खुद का श्राद्ध करता है। उसे 17 पिंड दान करने होते हैं। 16 अपने पूर्वजों के और 17वां पिंडदान खुद का। इसके बाद वह सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। वह नया जीवन लेकर अखाड़े में लौटता है।’ इसके बाद आधी रात में विरजा यानी विजया यज्ञ किया जाता है। गुरु एक बार फिर महापुरुष से कहते हैं कि वो चाहे तो सांसारिक जीवन में लौट सकता है। जब वह नहीं लौटता तो यज्ञ के बाद अखाड़े के आचार्य, महामंडलेश्वर या पीठाधीश्वर महापुरुष को गुरुमंत्र देते हैं। इसके बाद उसे धर्म ध्वजा के नीचे बैठाकर ऊं नम: शिवाय का जाप कराया जाता है। अगले दिन सुबह चार बजे महापुरुष को फिर गंगा तट पर लाया जाता है। 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। इसके बाद दंड-कमंडल का त्याग कराया जाता है। अब वह अवधूत संन्यासी बन जाता है। इस 24 घंटे की प्रक्रिया में उसे उपवास रखना होता है। तीसरी स्टेज- दिगंबर : जननांग की नस खींची जाती, कुंभ में शाही स्नान के बाद बनते हैं नागा 'भारत में महाकुंभ' किताब के मुताबिक अवधूत बनने के बाद दिगंबर की दीक्षा लेनी होती है। ये दीक्षा शाही स्नान से एक दिन पहले होती है। ये बेहद कठिन संस्कार होता है। इस दौरान गिने-चुने बड़े साधु ही मौजूद रहते हैं। इसमें अखाड़े की धर्म ध्वजा के नीचे उसे 24 घंटे बिना कुछ खाए-पिए व्रत करना होता है। इसके बाद तंगतोड़ संस्कार किया जाता है। इसमें सुबह तीन बजे अखाड़े के भाले के सामने आग जलाकर अवधूत के सिर पर जल छिड़का जाता है। उसके जननांग की एक नस खींची जाती है। साधक नपुंसक बन जाता है। इसके बाद सभी शाही स्नान के लिए जाते हैं। डुबकी लगाते ही ये नागा साधु बन जाते हैं। चार जगह लगने वाले कुंभ में जगह के हिसाब से इन नागा साधुओं को अलग-अलग नाम दिए जाते हैं। प्रयाग के कुंभ में नागा साधु बनने वाले को नागा, उज्जैन में खूनी नागा, हरिद्वार में बर्फानी नागा और नासिक में खिचड़िया नागा कहा जाता है। महिलाओं को ब्रह्मचर्य की परीक्षा पास करने में 10-12 साल लग जाते हैं महिलाएं भी नागा साधु बनती हैं। महिला नागा साधु को नागिन, अवधूतनी या माई कहा जाता है। ये वस्त्रधारण करती हैं। हालांकि कुछ चुनिंदा महिला नागा वस्त्र त्यागकर भभूत को ही वस्त्र बना लेती हैं। जूना अखाड़ा देश का सबसे बड़ा और पुराना अखाड़ा है। ज्यादातर महिला नागा इसी से जुड़ी हैं। 2013 में पहली बार इससे महिला नागा जुड़ीं थीं। सबसे ज्यादा महिला नागा इसी अखाड़े में हैं। इसके अलावा आह्वान अखाड़ा, निरंजन अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, अटल अखाड़ा और आनंद अखाड़े में भी महिला नागा हैं। सबसे सीनियर महिला नागा संन्यासी को अखाड़े में श्रीमहंत कहा जाता है। श्रीमहंत चुनी गई माई को शाही स्नान के दिन पालकी में लाया जाता है। उन्हें अखाड़े की ध्वजा और डंका लगाने का अधिकार होता है। महिला नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया भी पुरुष नागा साधुओं जैसी ही है। अंतर बस इतना है कि ब्रह्मचर्य पालन के लिए पुरुषों का जननांग निष्क्रिय किया जाता है, जबकि महिलाओं को ब्रह्मचर्य के पालन का संकल्प लेना होता है। कई महिलाओं को ये साबित करने में 10-12 साल भी लग जाते हैं। जब अखाड़े के गुरु को उस महिला पर भरोसा हो जाता है, तो वो दीक्षा देते हैं। दीक्षा के बाद महिला संन्यासी को सांसारिक कपड़ा छोड़कर अखाड़े से मिला पीला या भगवा वस्त्र पहनना होता है। इन्हें माता की पदवी दी जाती है। आटे को भस्मी, दाल को पनियाराम कहते हैं नागा साधु नागा साधु कोडवर्ड में बातें करते हैं। इसके पीछे दो वजह हैं। पहली- कोई फर्जी नागा इनके अखाड़े में शामिल नहीं हो पाए। दूसरी- मुगलों और अंग्रेजों के वक्त अपनी सूचनाएं गुप्त रखने के लिए यह कोड वर्ड में बात करते थे। धीरे-धीरे ये कोर्ड वर्ड इनकी भाषा बन गई। नागा साधु आटे को भस्मी, दाल को पनियाराम, लहसुन को पाताल लौंग कहते हैं। इसी तरह नमक को रामरस, मिर्च को लंकाराम, प्याज को लड्‌डूराम, घी को पानी और रोटी को रोटीराम कहते हैं। अखाड़ों में जो बैठक होती है उसे 'चेहरा' कहा जाता है। जहां अखाड़े की कीमती चीजें रखी जाती हैं, उसे मोहरा कहते हैं। चेहरा और मोहरा आमने-सामने होते हैं। 40वें दिन होता है अंतिम संस्कार का भोज जब किसी साधु का निधन हो जाता है, तो उसकी देह को सीधी स्थिति में बैठाने के लिए एक लकड़ी का ढांचा बनाया जाता है। फिर एक गड्‌ढा खोदकर समाधि दे दी जाती है। समाधि के समय मुंह पूर्व या उत्तर-पूर्व की ओर होता है। काशी, प्रयाग, हरिद्वार में ‘धनी’ नागाओं को पत्थर बांधकर गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। नागा के निधन के 40वें दिन सामूहिक भोज होता है, जो एक बड़े भंडारे जैसा होता है। नागा और वैरागी आपस में भिड़े, अंग्रेजों ने नागाओं को पहले स्नान का अधिकार दिया यदुनाथ सरकार अपनी किताब 'द हिस्ट्री ऑफ दशनामी नागा संन्यासीज' में लिखते हैं- 'कुंभ में पहले स्नान करने को लेकर हमेशा से विवाद होते रहे हैं। नागा साधुओं और वैरागी साधुओं के बीच खूनी जंग हुई है। 1760 के हरिद्वार कुंभ के दौरान पहले स्नान को लेकर नागा और वैरागी आपस में लड़ गए। दोनों ओर से तलवारें निकल आईं। सैकड़ों वैरागी संत मारे गए। 1789 के नासिक कुंभ में भी फिर यही स्थिति बनी और वैरागियों का खून बहा। इस खूनखराबे से परेशान होकर वैरागियों के चित्रकूट खाकी अखाड़े के महंत बाबा रामदास ने पुणे के पेशवा दरबार में शिकायत की। 1801 में पेशवा कोर्ट ने नासिक कुंभ में नागा और वैरागियों के लिए अलग-अलग घाटों की व्यवस्था करने का आदेश दिया। नागाओं को त्र्यंबक में कुशावर्त-कुंड और वैष्णवों को नासिक में रामघाट दिया गया। उज्जैन कुंभ में वैरागियों को शिप्रा तट पर रामघाट और नागाओं को दत्तघाट दिया गया। इसके बाद भी हरिद्वार और प्रयाग में पहले स्नान को लेकर विवाद जारी रहा। कुंभ पर अंग्रेजों के शासन के बाद तय किया गया कि पहले शैव नागा साधु स्नान करेंगे, उसके बाद वैरागी स्नान करेंगे। इतना ही नहीं, शैव अखाड़े आपस में ना लड़ें, इसलिए अखाड़ों की सीक्वेंसिंग भी तय की गई। तब से लेकर आज तक यही परंपरा चल रही है। स्केच : संदीप पाल ----------------------------------------------- महाकुंभ से जुड़ी ये खबर भी पढ़ें... महाकुंभ के किस्से-1 : अकबर का धर्म बदलने पुर्तगाल ने पादरी भेजा: जहांगीर ने अखाड़े को 700 बीघा जमीन दी; औरंगजेब बीमार होने पर गंगाजल पीते थे औरंगजेब गंगाजल को स्वर्ग का जल मानते थे। एक बार वे बीमार पड़े तो उन्होंने पीने के लिए गंगाजल मंगवाया। फ्रांसीसी इतिहासकार बर्नियर ने अपने यात्रा वृत्तांत में लिखा है- 'औरंगजेब कहीं भी जाता था तो अपने साथ गंगाजल रखता था। वह सुबह के नाश्ते में भी गंगाजल का इस्तेमाल करता था।' पूरी खबर पढ़ें... महाकुंभ के किस्से-2 : पहली संतान गंगा को भेंट करते थे लोग:दाढ़ी-बाल कटवाने पर टैक्स लेते थे अंग्रेज; चांदी के कलश में लंदन भेजा जाता था गंगाजल 1827 से 1833 के बीच एक अंग्रेज कस्टम अधिकारी की पत्नी फेनी पाकर्स इलाहाबाद आईं। उन्होंने अपनी किताब ‘वंडरिंग्स ऑफ ए पिलग्रिम इन सर्च ऑफ द पिक्चर्स’ में लिखा है- ‘जब मैं इलाहाबाद पहुंची, तो वहां मेला लगा हुआ था। नागा साधु और वैष्णव संतों का हुजूम स्नान के लिए जा रहा था। मैं कई विवाहित महिलाओं से मिली, जिनकी संतान नहीं थी। उन लोगों ने प्रतिज्ञा की थी कि पहली संतान होगी तो वे गंगा को भेंट कर देंगी।’ पूरी खबर पढ़ें...

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