नदियां छेड़छाड़ नहीं करती बर्दाश्त - मीणा
नदी प्रकृति की वह अनमोल देन हैं जिनका हमारे जीवन से गहरा सम्बन्ध है। वह ऊंचे पहाड़ों से निचले स्थलों की ढलान की ओर मैदानी इलाकों में बहते हुए पानी का एक प्राकृतिक प्रवाह है जो अपने प्रकृति के साथ बहते हुए आगे तब-तक बढ़ते रहतीं हैं जब तक कि उसे कहीं अवरोध न मिले या किसी दूसरे प्रवाह में वह समायोजित न हो जाए। इसीलिए जीवन्त रहने के वास्ते इन्हें जीवन दायिनी का सम्मान समाज विज्ञानियों द्वारा दिया गया है। यह भी सच है कि यह हमेशा अपनी बाहरी तथा आन्तरिक संरचनाओं में बहती रहती हैं और उसी में आनंद का अनुभव करती हैं। जहां तक मौसमी नदियों का सवाल है, वह भी अपने पेटे में बनी झील, गार्ज को हमेशा जलापूर्ति करने के साथ पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत बनाने का काम भी करतीं हैं। यह भी सर्वविदित है कि नदियों का एक अपना महत्व है। यह तथ्य सार्वकालिक सत्य है। इसी के चलते ही इनके किनारे पौराणिक समय में सभ्यताओं का विकास हुआ। आज भी उनके त्याग, उनके महत्व और अविरलता एवं स्वच्छता की गाथाएं हमारे सामने इतिहास की स्वर्णिम धरोहर हैं। विडम्बना यह रही कि अपने स्वार्थ और लोभ के वशीभूत व्यक्ति ने वर्तमान में इनके दोहन का कीर्तिमान बनाया। यही नहीं उसने इनको अपने उपभोग की वस्तु समझ लिया। उसके दोहन, शोषण के परिणाम स्वरूप आज़ स्थिति इतनी दुखदायी हो गयी है कि स्थानीय स्तर पर छोटी नदियां तो मर ही चुकी हैं। कुछ वेंटिलेटर पर सांसें गिन रहीं हैं, तो कुछ मैला ढोने वाली गाड़ी के रूप में हमारे सामने हैं। यह कटु सत्य है कि नदी स्वयं प्रकृति व मौसम के अनुरूप अपने रास्ते बनाती हैं। यही नहीं पचास से सौ वर्ष बाद भी वे पुनः अपने मूर्त रुप में दिखने लगती हैं। लेकिन तब तक मानव स्वयं उस क्षेत्र को छोड़कर अन्यत्र जाकर बस जाता है।राजस्थान के सरिस्का राष्ट्रीय बाघ परियोजना से निकलने वाली रुपारेल नदी की स्थिति भी ऐसी ही है जो अलवर जिले की सबसे बड़ी नदी होने के साथ अपने ऐतिहासिक महत्व के कारण इतिहास के पन्नों पर अंकित है। लेकिन आज वह स्वयं प्रजा पालक न होकर स्वयं वेंटिलेटर पर सांसें गिन रही है।
इतिहास प्रमाण है कि आज से दो से तीन दशक पूर्व तरुण भारत संघ के प्रमुख जल पुरुष राजेन्द्र सिंह ने इसके साथ ही पांच स्थानीय नदियों के पुनर्जीवित करने का कार्य किया था । लेकिन आज वे पांचों नदियां मरने के कगार पर हैं। आज उनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है।
गौरतलब है कि अलवर की ये नदियां प्रकृति पर निर्भर हैं। प्रकृति के सहयोग से ही मूसला धार वर्षा होने पर इसके रास्ते में बने अवरोधों को हटाने में इनको कुछ क्षण लगे हैं और यह भी सच है कि इन्होंने कुछ ही घण्टों में भरतपुर पहुंच कर तबाही भी मचाई है। जयसमन्द जैसे बांध की मोरी खोलने वाली रुपारेल अपने को वर्तमान में नहीं बचा पा रही है जबकि इसमें दो राय नहीं कि नदियां अपना रास्ता स्वयं साफ़ भी करती हैं लेकिन वह अपने साथ किसी भी किस्म की छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करतीं।
असलियत में रूपारेल नदी का उद्गम राजस्थान के अलवर जिले की थानागाजी पंचायत समिति के उदयनाथ जी के नाले से होता है।यह धारा यहां से निकल कर भाल ( रायपुरा) की धारा को साथ लेकर मैजोड, टोड़ी, जोधावास, लाहाकाबास, अमराकाबास होते हुए थानागाजी के पूर्वी भाग से बहते हुए सरिस्का में होकर कालीघाटी, करणा का बास, कुणडलका, इनदोक, भर्तहरी की जल धाराओं को अपने में समाहित कर कुशलगढ़ में कालाखोरा, ताल वृक्ष, नांगल हेड़ी, रहका माला की जल धाराओं के साथ माधोगढ़ होते हुए लालपुरा तथा रईका धाराओं के साथ नटनी का बारा में प्रवेश करती है। बारां में इसे दो कृत्रिम भागों में बांट दिया गया है। एक भाग का पानी जयसमन्द बांध उमरैण में तथा दूसरा भाग अपने साथ पांडुपोल, करास्का, मालाखेड़ा क्षेत्र की जल धाराओं के साथ बहते हुए मिलकपुर, चिरवई के पास आकर रूपारेल की मुख्य धारा में अलवर, चांदोली, केसरोली, चिकानी, बहादरपुर तथा टोडली की धाराओं में मिल जाती है। रुपारेल की यह धार पूर्व दिशा में आगे बढ़ कर सीकरी पट्टी बांध में समाहित हो जाती है। यहां से इस नदी का पानी नदी रुप में नहीं बल्कि फ़ैल कर बहता है जो आगे विभिन्न जल धाराओं को साथ लेकर भरतपुर होते हुए आगरा के पास जाकर यमुना में मिल जाती है जहां से अनेकों नदियों के साथ समाहित होकर प्रयाग ( इलाहबाद) में राष्ट्रीय नदी गंगा में मिल जाती है। जो गंगा अंत में गंगा सागर में मिलकर सागर में समाहित हो जाती है।
असल में इस नदी का ऐतिहासिक एवम् सामरिक महत्व है। ऐतिहासिक रूप से दैव्य वंश, सूर्य वंश, चंद्र वंशी राजाओं के साथ ही महाभारत कालीन मत्स्य काल में भी इसका महत्व वर्णित है। बाबर ने बाबर नामा में रुपारेल नदी का नाम " मानसे - नै " अर्थात मानस नदी लिखा है और यह भी बताया है कि उस समय यह नदी कोटला झील में गिरती थी।इस नदी के जल विभाजन को लेकर अलवर और भरतपुर रियासतों के बीच काफी विवाद भी रहाहै। भरतपुर महाराज ने 1837 में तत्कालीन भारत की ब्रिटिश सरकार में अपील की थी। 1862 तक यह विवाद जल बंटवारे का विषय बना रहा। 1855 - 56 में बारां बैराज (नटनी का बारा) में अलवर भरतपुर को पानी का बंटवारा कर विवाद का हल किया गया। इसके बावजूद रियासतों में पानी के बंटवारे के बाद भी यह नदी हमेशा राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं से जुड़कर चर्चा में बनी रही। रूपारेल वर्तमान में अलवर जिले की सबसे बड़ी व लम्बी नदी होने के साथ सर्वाधिक जल धाराओं को साथ लेकर बहने वाली नदी है। थानागाजी, मालाखेड़ा, उमरैण, रामगढ़, लक्ष्मणगढ़, अलवर पंचायत समितियों के भूगर्भ में जल की पूर्ति का मुख्य स्रोत यही नदी है।
बाघ परियोजना क्षेत्र सरिस्का के कारण रुपारेल का महत्व और भी बढ़ जाता है। परियोजना क्षेत्र में वन्यजीवों के पीने योग्य जल की पूर्ति इसी नदी व नदी के सहायक नालों से होती है। यह अपने उदगम स्थल से बारां तक 35 किलोमीटर के रास्ते में सरिस्का के कोर एरिया में से बहती है जो सरिस्का के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखते हुए प्राकृतिक वनस्पतियों तथा वन्य जीवों को संरक्षण देती है।
असली समस्या तो आज इसके अस्तित्व की है जो खतरे में है। नदी के उद्गम से बारां तक तथा इससे आगे नदी पर होटलों -रेस्टोरेंटों के साथ आबादी का दबाव इसके अस्तित्व के लिए भीषण खतरा बनता जा रहा है ।इससे नदी पवित्रता खत्म होकर यह जहरीली होने लगी है। नदी के पेटे में बने गार्ज और झीलों में मछलियों सहित सभी पाये जाने वाले जीव ख़तरे में हैं। थानागाजी नगरपालिका द्वारा गंदें नालों को इसमें डालने के बाद यहां का पारिस्थितिकी तंत्र ही बदल गया है। नदी डायन जैसी दिखने लगी है। चारो ओर प्लास्टिक के अपशिष्ष्टों का जमावड़ा होने से नदी के साथ वन्य जीवों को भी खतरा बढ़ गया है। दर्जनों अवरोधों से पानी की आवक कम हो गई है जिसके चलते नदी के पेटे में अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है। आज जो नदी एक समय स्वयं पालक थी, वह आज अपनी सांसें गिन रहीं है।
देखा जाये तो रुपारेल नदी स्वयं गंगा स्वरूप पवित्र नदी होने के साथ यह सरिस्का राष्ट्रीय अभ्यारण्य क्षेत्र की पर्यावरणीय पारिस्थितिकी को मज़बूत बनाने के साथ वन्य जीवों की जीवन दायिनी है।पर्यावरणीय दृष्टि से नदी का अपना महत्व होने के साथ अलवर जिले की आत्मा इसमें समाहित होती है। आज आवश्यकता है कि इसे शुद्ध, स्वच्छ बनाएं रखने के साथ इसकी अविरलता बरकरार रखने की,इसे प्रदूषण मुक्त रखने की, जहरीले गंदे पानी से बचाने की। साथ हीअतिक्रमण से दूर रखने के ठोस क़दम उठाए जाने की जिससे यह पुनः जीवित होकर अलवर की प्यास बुझा सके।
सच्चाई यह है कि रुपारेल नदी वर्तमान में वेल्टिनेटर पर सांसें गिन रही है। आबादी क्षेत्रों, होटलों, रेस्टोरेंटों का गन्दा ज़हरीला पानी व कचरा इसके पेटे में धकेला जा रहा है, जो पर्यावरणीय पारिस्थितिकी की दृष्टि से सरासर ग़लत है। नदी को उसके स्वभाव अनुरूप बिना अवरोध के बहने दिया जाए। साथ ही सरिस्का बाघ परियोजना को मद्देनज़र रखते हुए इसे अतिक्रमण मुक्त कराना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है अन्यथा यह जीवन दायिनी नहीं, डायन बन जाएगी। इसलिए नदी की स्वच्छता ,अविरलता के साथ पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करना बेहद जरूरी है।
- लेखन रामभरोस मीणा