उजड़ते जंगलों के साथ जीवन बचना मुश्किल - मीणा

Oct 26, 2024 - 18:09
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उजड़ते जंगलों के साथ जीवन बचना मुश्किल - मीणा

थानागाजी (अलवर / राजस्थान) वर्तमान समय में पुरे विश्व में सभी देशों राज्यों के प्रशासकों नीति निर्माताओं निर्देशकों द्वारा विकास के नाम अपनी नीतियों को इस कदर हावी किया जा रहा है कि इन से जीवन का बचना बड़ा मुश्किल हो गया है, जंगल उजाड़ने, पर्वत मालाओं से खनन कराने अनैतिक तोर तरीके से उधोगों की स्थापना परिवहन के साधनों व मानवीय जीवन की प्रत्येक आवश्यकताओं से एक मज़ाक जैसे माहौल में उत्पादन को बड़ाने का तरीका आज चारों और हाहाकार मचा रखा है,  जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की बिमारियां फैलने के साथ कुपोषण का प्रभाव माता-पिता पर ही नहीं नव आगंतुक नवजात शिशुओं पर भी दिखाई देने लगा है, वायु की गुणवत्ता खत्म होने के साथ उसमें विभिन्न प्रकार की जहरीली गैसें कई गुना बढ़ती जा रही है,  व्यक्ति की शारीरिक क्षमताओं का हास हों रहा है आकाश में मंडराये धुआं के बादलों के बदौलत वह अपनी आंखों से आकाश गंगाओं को देख नहीं पा रहा है 
खैर बात तो बिगड़ ही रहीं हैं और इसे सब जानते हैं लेकिन हम वर्तमान परिस्थितियों में जहां हमें जंगलों का विकास करना चाहिए था वहां आज निजी कम्पनियों को लाभ पहुंचाने, विधुत आपूर्ति कों बनाएं रखने के नाम पर, विकास के नाम  आंखें मीचे परियोजनाओं को स्वीकृति दे रहे हैं, ना वन्य जीवों वनस्पतियों पक्षियों का ख्याल रख रहे हैं ना ही पारिस्थितिकी सिस्टम को अनुकूल बनानें की सोच रहे हैं और यह हाल वर्तमान में राजस्थान का है।
राजस्थान के राष्ट्रीय चम्बल घड़ियाल अभयारण्य खात्मे की साज़िश बंगलों में बैठे रच कर 1060 हैक्टेयर वन भूमि से जंगल उजाड़ कर शहर के विकास की बात अभी खत्म नहीं हुई वहीं दुसरी तरफ़ ग्रीन एनर्जी कम्पनी को बारां जिले के शाहबाद क्षेत्र के पसधन क्षेत्र में हजारों वर्षों से बने प्राकृतिक वन की 400 हैक्टेयर भुमि से 1.19 लाख पेड़ काटकर पम्प स्टोरेज पावर प्लान्ट परियोजना को मंजूरी दी गई, बदोलत उर्जा मंत्री ने 6.70 लाख पेड़ लगाने की बात कही जों उतनी ही सार्थक है जितनी कि " गोद के कों पटक कर पेट वाले की आशा करना" यही सत्य है जों वर्तमान परिस्थितियों में लाखों वन्य जीवों का आवास है, पारिस्थितिकी सिस्टम कों बनाएं हुए हैं, स्थानीय लोगों की आजिविका की पूर्ति करता है, जड़ी बूटियों का भण्डार है भला उसे उजाड़ कर हम क्या पा लेंगे, कहां सफलता मिलेगी। एक मात्र उर्जा की पूर्ति के लिए अन्यत्र कहीं ओर स्थान क्यों नहीं चुना ?  क्या वही उपयुक्त है हमें इस पर स्थानीय जनता पर्यावरणीय मुद्दों को लेकर कार्य करने वाले लोगों से भी परियोजना को मंजूरी देने से पहले विचार विमर्श करने की आवश्यकता थी और यह होने पर  शायद वन उजाड़ने की नौबत नहीं आती। 
जंगल खत्म करने का मामला यहीं खत्म नहीं होता जैसलमेर सोलर पावर प्लांटों के लिए लाखों पेड़ों की बलि लग चुकी है अब बईया गांव की रोहिड़ाला राय ओरण के 50 हजार पेड़ काटने के लिए तैयारियां जोरों पर है, रोहिड़ाला राय ओरण के लिए स्थानीय लोगों ने अपनी जमीन की कुर्बानी देकर ओरणय तैयार किया ओर " मां आई नाथ जी " के नाम पर यह जंगल तैयार किया,  लेकिन अड़ानी ग्रुप की कम्पनी इस जंगल को नष्ट करने में जुट गई और आस पास लाखों पेड़ों की बली लग गई। यह शायद शुरुआत है लगता है मामला मामला यहीं शांत नहीं होगा अभी राजस्थान औधोगिक विकास को लेकर गेम चेंजर बनने को जा रहा है 12 हजार एकड़ पर 31 औधोगिक हब बनाएं जाएंगे और यहां भी लाखों पेड़ों की बलि आवश्य चढ़ेगी।
बड़ते ग्लोबल वार्मिंग, बिगड़ते मौसम चक्र, गिरते जल स्तर, घटते आंक्सिजन लेबल, बिगड़ती हौबो हवा से आज प्रत्येक व्यक्ति जीव जंतु अपने को ख़तरे में महसूस कर रहा है, उत्पादन घट रहा है, उपभोग बड रहा है, शुद्धता के नाम पर पानी, वायु प्राकृतिक पर्यावरण खत्म होते जा रहे हैं,  वहीं इन्हें सुधारने के नाम करोड़ों पेड़ लगा कर सरकारी खजाने को चपत लगाई जाती है और पेड़ लगाने के बाद उन्हें पालने की कोई चिंता नहीं होती लेकिन दुसरी तरफ विकास के नाम पर हर रोज राज्य में हजारों पेड़ों की बलि लगने के साथ वैध अवैध कटाई रूकने का नाम नहीं। 
वनों के विनाश के साथ पेड़ लगा कर उनकी क्षती पूर्ति के लिए उर्जा मंत्री हीरालाल नागर ने कहा है कि बारा और जैसलमेर में 6.70 लाख पौधे लगाएंगे लेकिन उजड़े पेड़ों के सामने यह केवल जुमला वाली बातें हैं,  एक पेड़ को बनने में 10 से 15 वर्ष लगते हैं वहीं एक वयस्क पेड़ लगभग पांच सो नये पौधों के बराबर वातावरण को स्वच्छ रखने का काम करता है,  जबकि लगाएं गये सभी पौधे जीवित नहीं रहते, ओर यह यथार्थ में देखा भी जा सकता है इस वर्ष वर्षा ऋतु में एक पेड़ मां के नाम अभियान में लगे पौधों के एक अनुभव से यह लगता है कि यह एक छलावा मात्र है जिसमें पेड़ों की हत्या की जाती है जबकि मात्र 25 प्रतिशत पौधे ही सुरक्षित रह सके हैं,  75 प्रतिशत पौधे का खत्म होना या देखरेख सही नहीं होना नियमों की धज्जियां उड़ानें से कम नहीं है।
आखिर बात यह आतीं हैं की यदि राजस्थान में विकास के नाम जंगलों को इसी कदर यदि उजाड़ा जाता रहा तो पारिस्थितिकी तंत्र लड़खड़ाने, हवा के जहरीली होने, ग्लोबल वार्मिंग के चलते ताप घात के बड़ने, जल स्तर गिरने, उत्पादन घटने तथा वन्य जीवों की प्रजातियों को नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता ओर इनका सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ेगा जो आने वाले समय में बडा घातक होगा अतः विकास के नाम पर वनों का विनाश ग़लत होगा। लेखक के अपने निजी विचार है।

  • लेखक: राम भरोस मीणा पर्यावरणविद् व वन्य जीव प्रेमी हैं।

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