चिमनीयों से निकलने वाले जहरीले धुएँ ने थामी लोगों की सांसें

Jun 5, 2021 - 02:46
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चिमनीयों से निकलने वाले जहरीले धुएँ ने थामी लोगों की सांसें

नई दिल्ली:- 18 वीं शताब्दी के प्रारंभ से प्रारंभ हुई औद्योगिक क्रांति को ज्यो ही बढ़ावा दिया गया, वैसे ही संपूर्ण पृथ्वी पर पर्यावरणीय तंत्र में बदलाव पैदा होने के साथ ही इको सिस्टम बदलना प्रारंभ हो गया तथा मानव व प्राणियों के अनुकूल नहीं रहा । भौतिकवादी विचारधाराओं के उत्पन्न होते औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिलना स्वाभाविक बनता है , जिसके चलते आज हवा, पानी,  मिट्टी सहित संपूर्ण सिस्टम दूषित हो गया , आम आदमी का दम घुटने लगा है।
दम घुटना स्वाभाविक है "मानव प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है वही वन्य जीवन स्वयं अपने को प्रकृति के अनुकूल बनाते हैं " ऐसे में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ मानव द्वारा किया जाना तय हो जाता है। कृषि क्रांति के साथ-साथ औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से उद्योगों की स्थापना के लिए  बड़े-बड़े जंगलों को नष्ट  किया गया अथवा उस संपदा को औद्योगिक इकाईयों की स्थापना हेतु जला दिया गया, जिससे वहां के प्राकृतिक वातावरण को उजाड़ा गया, साफ, स्वच्छ व सुंदर प्राकृतिक वातावरण अब दूषित होने लगा चारों ओर धुआं  ही धुआं दिखाई देने लगी।

उद्योगों की स्थापना की होड़ में लाखों-करोड़ों विशाल पौधें जो हजारो हेक्टेयर भु भाग पर कई शताब्दियों से बनें होने के साथ ही ऑक्सीजन व आँसधीयों के अपार भंडार थे, उन्हें उखाड़ कर औद्योगिक इकाइयां स्थापित की गई। उद्योगों में ईंधन की पूर्ति के लिए बिजली घरों की स्थापना, बड़े-बड़े बांध बनाए गए, इन सब  की स्थापना के लिए जंगलों को नष्ट किया गया, परिणाम स्वरूप पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ना प्रारंभ हो गया, धीरे धीरे पृथ्वी के सबसे नजदीक पाई जाने वाली स्ट्रेटोस्फीयर में ओजोन स्तर का तेजी से विघटन होने के कारण ध्रुवीय प्रदेशों में जमा बर्फ पिघलने लगी है, मानव को अनेक प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ा । क्लोरो फ्लोरो कार्बन गैसों के कारण उत्पन्न हो रही  समस्या मानव का जीवन कष्टमय  बना दी है, ओजोन में छिद्र होने  और बदलते हुए  पारिस्थितिकी के परिणाम सामने आने लगे जो एक चिंता का विषय बन कर सामने आए। परिणाम स्वरूप शुद्ध वायु , शुद्ध पानी, स्वच्छ वातावरण सब नष्ट होने के कगार पर पहुंच गए। परिणाम स्वरूप  स्वास्थ्य को बचाना बड़ा मुश्किल होता है और यही से प्रदूषण का प्रारंभ हो जाता है। " प्रदुषण अर्थात वायु ,जल , मिट्टी आदि का अवांछित द्रव्यों से दूषित होना ही पर्यावरण प्रदूषण माना जाता, जिसका संजीवों पर प्रत्यक्ष रूप से विपरीत प्रभाव पड़ता है, यह जब होता है तब प्रकृति द्वारा निर्मित वस्तुओं के अवशेष को मानव निर्मित वस्तुओं के अवशेष के साथ मिला दिया जाता हों, तब दूषित पदार्थों का निर्माण होता है"।
वनों की कटाई, वन्यजीवों के आवासों पर अतिक्रमण, गहन कृषि और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के त्वरित जैसे मानवीय कार्यों में  प्रकृति को नुकसान पहुंचाया है, इसे अपने सीमा से दूर कर दिया है, यदि इसी प्रकार से मानव द्वारा हर साल छेड़छाड़ होती रही तो यह बड़ी जैव विविधता वाली हानि का कारण बनेगी जो मानव के लिए सबसे बड़ा खतरा होगी।
उद्योगों के अत्यधिक विकास, उनके अपशिष्टों से पर्यावरण में विभिन्न प्रकार की जहरीली गैसे, शीशा जनित पदार्थ, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड हवा की नमी के साथ मिलने पर अधिक जहरीली हो जाती है, जहरीली गैसों का असर उस क्षेत्र के लोगों में जीव जंतुओं पर पड़ता है जिससे सांस लेने में परेशानी व फेफड़ों से संबंधित रोगों के फैलने का अंदेशा हमेशा बना रहता है, परिणामस्वरूप फेफड़ों से संबंधित रोगों अस्थमा, टीबी, स्वास जैसे रोगों के साथ साथ चर्म वह मांशिक रोगों के फैलने  का अंदेशा हमेशा बना रहता है तथा व्यक्ति का जीवन जीना दुर्लभ हो जाता है। दुआ के साथ साथ निकलने वाली शीशा जनक पदार्थ हवा पानी मिट्टी धूल के कण सहित पेंटिंग के पदार्थ में मौजूद रहते है, इसके साथ ही जहरीली गैसे औद्योगिक इकाइयों के आसपास के क्षेत्रों में काले बादल के रूप में मंडराती हुई दिखाई देती,  इनका सीधा प्रभाव वहां के मानव स्वास्थ्य के साथ-साथ प्राकृतिक वनस्पति, कृषि फसलों पर दिखाई देने लगता, परिणामस्वरूप वहां की वनस्पति की प्रकृति भी बदल जाती है जो मानव के अनुकूल ना रहकर प्रतिकूल हो जाती है।

 चिमनीयों से उगलती धुआं से मानव की दम घुटना प्रारंभ होने के साथ प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखना मुश्किल हो गया है। ऐसे में वनस्पति के बदलते स्वरूप के साथ ही वन्य जीव जंतु की प्रकृति भी बदलना प्रारंभ हो गई , जिससे मानव व वन्यजीवों के बीच में आए दिन तकरार होती रहती है। बढ़ते प्रदूषण , चिमनीयों से  उगलते जहर, जल,मिट्टी,वायु में मिलते जहर को मध्य नजर रखते हुए हमें आज विश्व पर्यावरण दिवस पर यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम अधिक से अधिक वृक्षारोपण कर कम से कम प्रदूषण फैलाने की चेष्टा करें। वहीं सर्वाधिक मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने की नीति बनाएं, जिससे आगे आने वाली पीढ़ी को किसी प्रकार की कोई हानि ना हो साथ ही घुटती सांसें, बिगड़ते स्वास्थ्य की चिंताओं से मुक्ति पा सके।

लेखक- राम भरोस मीणा,

(प्रकृति प्रेमी)

 

 

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