रात भर चली तोपें और बंदूके उगलती रहीं आग: बारूद के धमाकों से गूंजा गांव, हकीकत में दिखी गोलियों की रासलीला की झलक

तोफो ने दागे 50 गोले 5 किलोमीटर दूर तक सुनाई दी धमाकों की आवाज, 100 किलोमीटर दूर से लोग पहुंचे जश्न देखने

Mar 21, 2022 - 00:50
Mar 22, 2022 - 01:56
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रात भर चली तोपें और बंदूके उगलती रहीं आग: बारूद के धमाकों से गूंजा गांव, हकीकत में दिखी गोलियों की रासलीला की झलक

उदयपुर के गांव मेनार में दिखा युद्ध का दृश्य लेकिन असल में था होली का जश्न,

तड़ातड़ा चल रही थी तो वह बंदूकें, डेढ़ करोड़ रुपए की हुई आतिशबाजी, हर तरफ लहरा रही थी तलवारे

यहां के लोगों के हाथ में लकड़ी तलवार बंदूक लेकर सर्किल में नाचते हैं

उदयपुर। (राजस्थान/मुकेश मेनारिया) साल 2013 में आई संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गोलियों की रासलीला' में दिखाए नजारों को  पर्दें पर सभी ने देखा और पसंद भी किया। लेकिन लोगों को इस बात की ज्यादा जानकारी नहीं होगी कि ऐसे नजरे असल जिंदगी में भी होते देखे जा सकते हैं।

राजस्थान के उदयपुर जिले के ब्रह्म क्षत्रियों के गांव मेनार में शनिवार देर रात जमरा बीज के अवसर पर मोर्चाबंदी एवं गेर नृत्य ने दर्शकों को युद्ध जैसा होने का अहसास करा दिया। ओंकारेश्वर चौक में रात 10 बजे से रविवार तड़के तक हजारों लोगों ने मेनार की इस ऐतिहासिक परम्परा को साक्षात देखा। मेनार के मुख्य चौराहे पर आने से पहले गांव के युवा व बुजुर्ग पारंपरिक वेशभूषा में आतिशबाजी एवं बारूद उगलती बंदूकों व तोप के साथ आगे बढ़ रहे थे। इसके बाद ओंकारेश्वर चौराहे पर जब पांचों रास्तों पर की गई मोर्चाबंदी खुली तो करीब एक घंटे तक बंदूक के धमाकों से पूरा गांव गूंज उठा। 

इस दौरान वैश्य समुदाय ने अबीर-गुलाल से लोगों का स्वागत किया। इसके बाद लोग आतिशबाजी करते हुए थम्ब घाटी की ओर गए। जहां गांव के शौर्य व वीरता के इतिहास का वाचन किया गया। इसी दौरान गांव की महिलाओं व युवतियों ने मुख्य होली को शीतल करने की रस्म अदा की। यहां से सभी लोग ढोल की थाप पर दोबारा ओंकारेश्वर चोराहे पर आए जहां तलवारों से जबरी गेर रमी गई।

मुगलों की सेना को शिकस्त देने के उत्साह में पिछले 450 साल से मेनार में गोला-बारूद की होली खेली जाती है। इस बार ये होली 19 मार्च यानी कि जमराबीज पर खेली जाएगी इस दिन शाम ढलने के साथ ही मेनार गांव में मेनारिया समाज के लोग पटाखों, गोला-बारूद के साथ होली खेलते हैं। यहां के ग्रामीण बताते हैं कि पिछले 450 साल से इस परंपरा का निर्वहन बदस्तूर जारी है। दरअसल मुगलों की सेना को इस इलाके के रणबांकुरों ने अपने शौर्य और पराक्रम के बल पर शिकस्त दी थी। उसी खुशी में जमराबीज के दिन यहां की अनूठी होली मनाई जाती है।

  • शाम ढलने के साथ शुरू होता है उत्सव

मेवाड़ के मेनार मे होली के तीसरे दिन हर वर्ष शाम ढलने के साथ ही गांव के अलग-अलग रास्तों से रणबांकुरे की टोलियां सेना के टुकड़ियों के वेश में गांव के मुख्य चौक में पहुंचती हैं। यहां बंदूक और बारूद की चिंगारियां उस दिन की याद ताजा कराती है। जब इस गांव और आसपास के इलाकों में रणबांकुरे ने मुगल आक्रांता और को धूल चटा दी थी। 450 साल से चली आ रही इस परंपरा को अब बारूद की होली के नाम से भी पहचाना जाने लगा है।

  • दूर-दराज से भी चले आतें हैं गांव के लोग

जमराबीज की पूरी रात मेनार गांव के रहने वाले मेनारिया समाज के लोग जमकर मस्ती करते हैं। शौर्य और पराक्रम के प्रति इस त्यौहार का आनंद लेते हैं। ऐसे में परंपरा का निर्वहन करने के लिए मेनारिया समाज का हर व्यक्ति अपने गांव लौट आता है। ऐसे में बच्चे बूढ़े और जवान सभी पारंपरिक वेशभूषा में सजधज कर शाम से ही मेनार गांव के बीच चौक में जमा होने लगते हैं। जैसे-जैसे अंधेरा बढ़ने लगता है। तलवारों से गैर नृत्य खेलकर समां बांधते हैं।

  • औरंगजेब से जुड़ा है बारूद होली का इतिहास

इस उत्सव को मनाए जाने के पीछे इस जगह का इतिहास है जिसके मुताबिक मेनारिया ब्राह्मणों ने राष्ट्र और धर्म रक्षार्थ शास्त्र के स्थान पर शस्त्र धारण किए और 17वीं सदी में औरंगजेब की मुगल सेना से लोहा लिया था और उन्हें मेवाड़ की भूमि से लौटने पर मजबूर किया। 

  • यह कहते हैं मेनार के वासी

मेनार के रणबांकुरे बताते है कि जब महाराणा प्रताप ने मुगलों से संघर्ष के लिए हल्दीघाटी युद्ध की शुरुआत की थी। ऐसे में प्रताप ने मेवाड़ के हर व्यक्ति को उस चेतना से जोड़ते हुए स्वाभिमान का जो पाठ पढ़ाया था। इसी के बाद में अमर सिंह के नेतृत्व में मुगल थानों पर विभिन्न हमले किए जा रहे थे।
उन्होंने बताया कि इसी प्रसंग के अंदर मेनार के पास एक मुगलों की छावनी हुआ करती थी। ऐसे में मुगलों की छावनी का जो अत्याचार था। इससे मुक्ति पाने के लिए मेनार के मेनारिया समाज ने मुगलों के अत्याचार का मुंहतोड़ जवाब देने की योजना बनाई। मेनार के लोगों ने एकजुट होकर मुगलों का मुंहतोड़ जवाब दिया। लोगों ने मुगलों की छावनी पर भीषण आक्रमण करते हुए वहां की सेना को शिकस्त दी। इसके बाद में जो जीत हासिल हुई थी उसी स्मृति में मेनार गांव के मुख्य ओंकारेश्वर चबूतरे के यहां पांचों रास्तों से अलग-अलग दल एक साथ हाथों में बंदूकें व तलवारें लिए चबूतरे की तरफ कूच करते हैं जिसके बाद भव्य आतिशबाजी और हवाई फायर किए जाते हैं। इसके बाद मुख्य चौराहों पर प्रसिद्ध तलवारों की जबरी गेर खेली जाती है।

  • इतिहास

इस पारंपरिक होली का इतिहास मेनारिया ब्राह्मणों के मुग़ल सेना से विजियी युद्ध से जुड़ा है, कहते है कि मुगलो ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण के बाद मेवाड़ पर हमला करने की कोशिश की थी, तभी मेनार के मेनारिया ब्राहमणों ने को बड़ी वीरतापूर्ण मुग़ल सेना को न सिर्फ रोका बल्कि पराजित भी किया। इस गौरवशाली विजय से प्रसन्न मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह प्रथम ने सम्मानपूर्वक 17 वें उमराव, क्षत्रिय ब्राह्मण की उपाधी दी और कुछ ख़ास चीज़े मेनारिया समाज को दी जैसे, एक लाल रंग की जाजम, भाला, एक बांकिया और एक रण बांकुर ढोल दिया।

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