बदल रही होली की पुरानी परंपरा, कम सुनाई देती फाग की राग

लक्ष्मणगढ़ (अलवर/ कमलेश जैन) बदलते दौर मे अश्लील गीतों के आगे गांवों मे अब फाग की राग कम सुनाई देती है। होली के पुराने गीतों पर पूर्ण रूप से अश्लीलता हावी होने लगी है। ऐसे में होली की मस्ती व उमंग भी गायब होती जा रही है। अब होली खेले रघुवीरा अवध में, होली खेले रघुवीरा..., के बोल बदल गए हैं। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे रिश्ते औपचारिक होते गए, होली की पुरानी परंपरा भी बदलती चली जा रही है।
परंपरा के प्रति पुराने उत्साह में दिनों दिन कमी होने से ग्रामीण क्षेत्र, गांवों मे होलिका दहन की परंपरा भी विलुप्त होती जा रही है। होलिका दहन की पुरानी परंपरा पर अपसंस्कृति हावी होती जा रही है। आज से कोई दो-ढाई दशक पूर्व गांवों में बसंत पंचमी के दिन से ही होलिका दहन की तैयारी शुरू कर दी जाती थी।
बसंत पंचमी की रात गांव के बड़े बुजुर्ग व युवा वर्ग के लोग होलिका दहन स्थल पर नया बांस लगा देते थे। उसके बाद बसंत पंचमी की रात्रि से ही गांव के गवैया होली के पुराने पारंपरिक गीतों को गाने लगते थे। बसंत पंचमी की रात्रि से लगातार चालीस दिन होली की रात्रि तक होली गीतों के तान पर ढोलक की थाप गांवों में सुनाई देती थी।
होली के एक दिन पहले होलिका दहन स्थल पर होलिका दहन के लिए पर्याप्त मात्रा में पुआल, उपला, पुरानी खरही व बगीचे के सूखे पत्तों को जमा किया जाता था। फिर देर संध्या मे किये गये होलिका दहन के उपरांत होली की हुड़दंग शुरू हो जाती थी, लेकिन वर्तमान समय में ऐसा नहीं हो रहा है।
अब होलिका दहन की परंपरा का जैसे-तैसे निर्वहन किया जा रहा है। अब होलिका दहन की परंपरा कहीं-कहीं निभाई जा रही है। वर्तमान समय पर हावी आधुनिकता के आगे पुरानी होली की हुड़दंगता, होली की टोली, अब गांवों मे भी नही के बराबर देखी जाती है।
कम होती जा रही फाल्गुनी मिठास
पुराने जमाने मे होली के दिन सुबह में धूल उड़ाने की परंपरा के बाद कीचड़ व मिट्टी की होली होती थी, लेकिन समय में आये बदलाव की वजह से अब इसके बीच कपड़ा फाड़ होली ने भी अपना पांव जमा लिया है। गांवों की होली मे होने वाले हंगामे की वजह से इसका स्वरूप बदलकर अब औपचारिकता भर रह गयी है। इससे फागुन का मजा जहां फीका लगने लगा है। वहीं दिनों दिन शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में फाल्गुनी मिठास भी कम होती जा रही है।






